18वीं लोकसभा का पहल सत्र चल रहा है. इस दौरान संविधान, आपातकाल के 50 साल और सेंगोल को प्रतीक बनाकर घेराबंदी की सियासत छिड़ गई है. संविधान, इमरजेंसी और सेंगोल के नाम पर दलितों, पिछड़ों के वोट की गोलबंदी को अपने पाले में मजबूत करने की लड़ाई हो रही है. इतना ही नहीं, अब ये आरोप तक लग गया कि संसद में 'जय संविधान' तक बोलने पर आपत्ति की जा रही है. इसे लेकर कांग्रेस नेता प्रियंका गाांधी ने पूछा कि क्या जय संविधान भारत की संसद में नहीं बोला जा सकता, कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत पूछ रही हैं कि क्या संसद में जय संविधान कहने पर भी स्पीकर को दिक्कत है?
सबसे पहले ये समझते हैं कि संसद में जय संविधान के नारे का विवाद क्या है? दरअसल, संसद में नवनिर्वाचित सदस्यों ने शपथ के दौरान हाथ में संविधान लेकर जय संविधान का नारा लगाया था. इसके बाद 27 जून यानी गुरुवार को कांग्रेस नेता शशि थरूर ने संसद में शपथ ली. शपथ लेने के बाद उन्होंने कहा- जय संविधान. इसके बाद शशि थरूर ने स्पीकर ओम बिरला से हाथ मिलाया. तभी विपक्ष की तऱफ से कुछ आवाज आई तो स्पीकर बोले कि संविधान की शपथ तो ले ही रहे हैं.
लोकसभा अध्यक्ष के ये कहने के बाद विपक्षी बेंच से हल्ला होने लगा. हरियाणा से सांसद दीपेंद्र हुड्डा खड़े हो गए. वह कहते हैं कि इस पर आपको आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी. दीपेंद्र हुड्डा के इसी बयान पर लोकसभा अध्यक्ष की तरफ से जो कहा गया, वो बहुतों को चौंका गया. ओम बिरला ने कहा कि किस पर आपत्ति और किस पर आपत्ति नहीं करनी, सलाह मत दिया करो, चलो बैठो.
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इसके बाद दीपेंद्र हुड्डा तो बैठ गए, लेकिन संसद में जय संविधान कहने से रोकने का आरोप लगाता विवाद खड़ा हो गया. तभी तो प्रियंका गांधी ने लिखा कि चुनावों के दौरान सामने आया संविधान विरोध अब नए रूप में सामने है, जो हमारे संविधान को कमजोर करना चाहता है. सुप्रिया श्रीनेत ने लिखा कि 5 बार के सांसद दीपेन्द्र हुड्डा से 'तू तड़ाक' कर रहे हैं. मान्यवर आप 41,974 से और वो 3,45,298 से जीत कर आए हैं.
विपक्ष की नाराजगी की वजह क्या?
ऐसे में सवाल है कि क्या वाकई लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने जय संविधान बोलने से रोका या आपत्ति की? या फिर विपक्ष की असली नाराजगी बुधवार को लोकसभा में इमरजेंसी पर लाए गए निंदा प्रस्ताव पर है, जहां आपातकाल के 50 साल पर तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के इमरजेंसी के दौरान लिए गए फैसलों पर लोकसभा अध्यक्ष ने भाषण दिया, जिसके खिलाफ मुद्दा गुरुवार को स्पीकर से मुलाकात के दौरान राहुल गांधी ने उठाया. साथ ही राहुल गांधी ने कहा कि जो आक्रमण संविधान पर पीएम मोदी और अमित शाह कर रहे हैं, वो हम होने नहीं देंगे. शपथ लेते हुए हमने संविधान पक़ड़ा था, हमारा संदेश जा रहा है कि कोई संविधान को छू नहीं सकता.
विपक्ष ने सरकार को घेरा तो बीजेपी ने याद कराया आपातकाल
संविधान यानी बाबा साहब भीमराव आंबेडकर बाबा साहब भीमराव आंबेडकर यानी दलित और पिछड़ों की आवाज, तो क्या इसीलिए जब विपक्ष हाथ में संविधान लेकर इस बार सदन में लगातार सरकार को घेरता है, तो संविधान वाले दांव का जवाब आपातकाल के 50 साल से दिया जाता है. जहां पहले प्रधानमंत्री इमरजेंसी के 50 साल याद दिलाते हैं. फिर बीजेपी 25 जून को इमरजेंसी याद कराते हुए विरोध के कार्यक्रम करती है. फिर 26 जून को लोकसभा में आपातकाल के खिलाफ निंदा प्रस्ताव आता है. गुरुवार को राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी इमरजेंसी याद कराई जाती है.
स्पीकर से मिलने पहुंचे राहुल गांधी
जब लोकसभा में बुधवार को निंदा प्रस्ताव आया, और 2 मिनट का मौन रखा गया तो विपक्ष ने हंगामा किया. लोकसभा में नेता विपक्ष बन चुके राहुल गांधी इंडिया ब्लॉक के नेताओं के साथ गुरुवार को स्पीकर से मिलने पहुंचे. इसी मुलाकात के दौरान दावा है कि नेता विपक्ष राहुल गांधी ने स्पीकर की तरफ से आपातकाल को याद कराने पर आपत्ति दर्ज कराई गए. राहुल गांधी की तरफ से कहा गया कि स्पीकर ने राजनीतिक कदम उठाया. ये भी दावा है कि राहुल गांधी ने स्पीकर से कहा कि इससे बचा जा सकता था.
क्या आपातकाल से दिया संविधान बचाओ के नारे पर जवाब?
सवाल यही है कि आखिर जिस जनता ने इमरजेंसी खत्म होने के तीन साल बाद फिर से इंदिरा गांधी की सरकार को चुन लिया था, उस आपातकाल को क्या अब याद कराके कांग्रेस को संविधान बचाओ के नारे पर बीजेपी जवाब दे पाएगी? और इसकी जरूरत ही क्यों है? संविधान को हाथ में लेकर विपक्ष के नेता जब चुनाव में नजर आए तो बयान याद करिए. बयान थे कि बीजेपी सत्ता में आई तो आरक्षण खत्म कर देगी. बयान दिया गया कि बीजेपी सत्ता में आई तो संविधान बदल देगी. बीजेपी के सारे नेता पूरी ताकत लगाकर चुनाव में कहते रहे कि इस संविधान को कोई नहीं बदल सकता. विपक्ष के बयानों का असर दलितों और पिछड़ों तक पहुंचा.
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चुनाव में NDA को कहां नुकसान हुआ?
ये कहने की पहली वजह समझिए- देश में दलित समाज के लिए आरक्षित 84 सीटें हैं, जहां 2019 में 54 सीट जीतने वाले NDA को इस बार 39 सीट ही मिलीं. जबकि पिछले लोकसभा चुनाव में 11 सीट जीतने वाले विपक्ष को इस बार 42 सीट मिलीं. अन्य की सीट 19 से घटकर तीन हो गईं. यानी संविधान हाथ में लेकर जो चुनावी नैरेटिव गढ़ा गया, उसका फायदा विपक्ष को दलितों के लिए आरक्षित सीट पर मिला. अगर सिर्फ उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां पर 17 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं, जहां पिछली बार 15 सीट जीतने वाले एनडीए को अबकी सिर्फ आठ सीट मिलीं और जिस इंडिया ब्लॉक को पिछली बार एक सीट नहीं मिली थी, उसे भी आठ सीट मिली हैं. अन्य को इस बार एक सीट मिली है. यानी यूपी में जो सबसे बड़ा नुकसान बीजेपी को हुआ है, उसमें भी दलित वोट एक बड़ी वजह है.
इंडिया ब्लॉक को कहां फायदा हुआ?
अगर सिर्फ दलित वोट का हिसाब देखें तो इंडिया ब्लॉक को इस बार 32 फीसदी मिला यानी 7 फीसदी बढ़ा है, जबकि एनडीए को 35 फीसदी कम वोट मिला है, 5 फीसदी घटा है. ऐसे ही ओबीसी सांसदों की संख्या की तुलना करें तो NDA के 26.2% सांसद इस बार पिछड़े वर्ग के हैं, जबकि INDIA ब्लॉक में 30.7% सांसद ओबीसी वर्ग के हैं.
विपक्ष ने चुनावी लड़ाई में बीजेपी को नुकसान पहुंचाया
क्या यही वजह है कि जिस संविधान बचाओ का नारा लेकर विपक्ष ने चुनावी लड़ाई में बीजेपी को नुकसान पहुंचाया है, उसी संविधान को हाथ में लेकर संसद में होते घेराव के माहौल में जवाब आपातकाल के 50 साल से देना जरूरी है और तब इस संविधान वाली रस्साकशी में विपक्ष ने नया दांव चल दिया. जहां नई संसद में राजदंड रूपी सेंगोल की स्थापना हुई थी, उसे राजतंत्र का प्रतीक बताते हुए अखिलेश यादव की पार्टी के सांसद ने लोकसभा अध्यक्ष से सेंगोल को हटाने और संविधान की प्रति लगाने की मांग कर दी.
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सेंगोल को लेकर छिड़ा सियासी रण
वो सेंगोल जिसे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने थामा था, सेंगोल जो हिंदू परंपरा में सत्ता हस्तांतरण की पहचान रहा है, वो सेंगोल जो तमिल संस्कृति की शान रहा. पिछले साल संसद में उसी परंपरा, उसी रीति-रिवाज, उसी धार्मिक अनुष्ठान के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने थामा, जिस अनुष्ठान के साथ 14 अगस्त 1947 की रात नेहरू को थमाया गया था. जिस सेंगोल को भारत की स्वतंत्रता और संस्कृति की पहचान बताते हुए दंडवत होकर प्रधानमंत्री ने देश की संसद में स्थापित किया. अब नई संसद में नई लोकसभा के कार्यकाल में राष्ट्रपति के अभिभाषण के वक्त उसी सेंगोल को लेकर संविधान की सियासत का रण छिड़ा है. इसकी वजह बने हैं आर के चौधरी. लखनऊ के बगल की सीट मोहनलालगंज से समाजवादी पार्टी के सांसद हैं. आर के चौधरी का कहना है कि जब वो शपथ लेने गए और बगल में सेंगोल देखा तो उन्हें लगा कि ये राजतंत्र का प्रतीक है. इसकी जगह संविधान की प्रति क्यों नहीं रखी जाती. कभी मायावती के बेहद करीबी नेता रहे आर के चौधरी जो अब समाजवादी हो चुके हैं. इनके बयान ने बता दिया कि अब संविधान और आपातकाल की सियासत में अगली कड़ी सेंगोल बन गया है. सेंगोल और संविधान की सियासी बहस छेड़कर ये नया चैप्टर खोला जा रहा है. जहां अगड़े औऱ पिछड़े पर नया विवाद बढ़ने से उस वोट बैंक को संदेश देने की कोशिश है, जहां इस बार विपक्ष को ज्यादा सफलता मिली है.
(रिपोर्ट- आजतक ब्यूरो)