हाथरस हादसे के बाद बाबा नारायण साकार हरि उर्फ भोले बाबा उर्फ सूरजपाल जाटव तो रहस्यमयी तरीके से अंतर्ध्यान हो गया, लेकिन अब सवाल यही है कि क्या इस हादसे को रोका जा सकता था? यदि शासन-प्रशासन ने वक्त रहते सत्संग के इंतज़ामों का मुआयना किया होता, तो क्या भीड़ को कंट्रोल किया जा सकता था? क्या भगदड़ और 100 से ज्यादा मौतों को टाला जा सकता था? तो इन सारे सवालों का जवाब हां में है. बशर्ते शासन-प्रशासन सजग होता.
अब सवाल ये है कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो नहीं होना चाहिए था और आखिर ऐसा क्या नहीं हुआ जो प्रशासन को करना चाहिए था? तो सत्संग वाली जगह के इर्द-गिर्द यानी हाथरस और आस-पास के जिलों की पुलिस और मेडिकल व्यवस्था पर एक निगाह डालने भर से सारी की सारी कहानी साफ हो जाती है. ये कहानी घनघोर लापरवाही की तरफ इशारा करती है. यदि पुलिस और प्रशासन की तरफ से ये लापरवाही नहीं होती तो आज सैकड़ों जानें बच गई होतीं.
जानलेवा गलती नंबर-1: भक्तों की तादाद को लेकर बेख़बर प्रशासन
बाबा नारायण साकार हरि उर्फ सूरजपाल के इस सत्संग की तैयारी करीब 15 दिनों से चल रही थी. सिकंदराराऊ के गांव फुलरई को सत्संग स्थल के तौर पर चुना गया था और यहां सत्संग के लिए 27 जून से ही यूपी के अलावा मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड और दूसरे राज्यों से भक्तों का आना शुरू हो गया था. लोग बसों में लद-फद कर यहां पहुंच रहे थे. सत्संग शुरू होने से कुछ रोज़ पहले ही करीब 500 बसें यहां पहंच चुकी थी. जिनमें आए भक्त टेंपोररी टेंट में या फिर बसों के नीचे सो रहे थे. लेकिन शासन-प्रशासन ने इतनी बड़ी भीड़ और इन तैयारियों को देख कर भी अनदेखा कर दिया.
नतीजा ये हुआ कि एकाएक जब 2 जुलाई को सत्संग स्थल पर ढाई लाख लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई, तो इतनी बड़ी भीड़ को संभालने के लिए शासन-प्रशासन की ओर से वहां कोई इंतज़ाम नहीं था. सरकार ने पहले ही साफ किया कि आयोजकों ने इस सत्संग में करीब 80 हज़ार लोगों के आने की बात कही थी और प्रशासन ने इसके लिए इजाजत भी दी थी. लेकिन प्रशासन का काम सिर्फ इजाजत देना भर नहीं होता, ये देखना और निगरानी भी करना होता है कि जितनी भीड़ की बात कही जा रही है, क्या वाकई उतने ही लोग सत्संग के लिए मौके पर पहुंचे हैं या फिर तादाद कहीं ज्यादा बढ़ रही है.
प्रशासन इस मोर्चे पर बिल्कुल फेल्योर साबित हुआ. ऐसा नहीं है कि एलआईयू को इस बात की कोई खबर नहीं थी. बल्कि खबर तो ये है कि एलआईयू ने इस संभावित भीड़ को लेकर प्रशासन को पहले ही आगाह कर दिया था, लेकिन इसके बावजूद इस भीड़ को नियंत्रित करने का कोई असरदार इंतजाम नहीं किया गया.
जानलेवा गलती नंबर- 2: केवल 40 पुलिसवालों के जिम्मे 2.5 लाख लोग!
सत्संग वाली जगह पर हुई पुलिस तैनाती को समझिए. आपको सारी बात समझ में आ जाएगी. सत्संग में करीब ढाई लाख लोग पहुंचे थे जानते हैं उन्हें संभालने के लिए जिला प्रशासन ने कितने पुलिसवालों को तैनात किया था? तो सुनिए. सिर्फ 40. जी हां, आपने बिल्कुल सही पढ़ा. ढाई लाख लोगों की देख-रेख और हिफाजत के लिए सिर्फ चालीस पुलिस वाले. यानी हर 6250 लोगों पर सिर्फ एक पुलिस वाला. अब ज़रा सोचिए कि क्या एक पुलिसवाला इतने लोगों की भीड़ को संभाल सकता है? जाहिर है ये मामला ऊंट के मुंह में ज़ीरा वाला ही है.
माना कि यदि 2.5 लाख की जगह 80 हजार लोग भी होते, जैसा कि आयोजकों ने जिला प्रशासन से कहा था, तो भी 40 पुलिस वालों के हिसाब से हर पुलिस वालों पर 2000 लोगों को संभालने की जिम्मेदारी होती, जो एक नामुमकिन सी बात है. अब बात थानों की करते हैं. हाथरस जिले में कुल 11 थाने हैं. फुलरई गांव में जहां सत्संग का आयोजन किया गया वो गांव थाना सिकंदराराऊ की हद में आता है. इस थाने में करीब 100 पुलिस वाले तैनात हैं, जबकि जिले के बाकी थानों में भी औसतन 80 से 100 पुलिस वालों की तैनाती है. इस हिसाब से पूरे जिले में करीब 1600 से 1700 पुलिस वाले हैं.
चूंकि जिले में सिर्फ ये सत्संग का काम ही नहीं है, इसलिए ऐसे आयोजन के लिए जिला प्रशासन को पहले तैयारी करनी चाहिए थी और पास के जिलों से अतिरिक्त पुलिस बल का इंतजाम करना चाहिए था. सीनियर पुलिस ऑफिसर और जानकारों का मानना है कि इतनी बड़ी भीड़ को संभालने के लिए कम से कम 100 पुलिस वालों की तैनाती होनी चाहिए. जबकि पूरे जिले में पुलिस वालों की कुल तादाद इसके तकरीबन ठीक डबल है. ऐसे में एक्स्ट्रा फोर्स के बगैर ऐसे आयोजन की इजाजत दी ही नहीं जानी चाहिए थी.
जानलेवा गलती नंबर- 3: पहले से बीमार मेडिकल 'सिस्टम'
आम तौर पर ऐसे आयोजनों के दौरान किसी भी अनहोनी से निपटने के लिए शासन-प्रशासन को पहले से मेडिकल अरेंजमेंट भी करने होते हैं. अस्पताल, बेड, डॉक्टर, एंबुलेंस, स्टाफ सबकुछ चाक चौबंद रखना होता है. ताकि ऐसे किसी हादसे की सूरत में तुरंत लोगों को राहत पहुंचाई जा सके, उनका इलाज किया जा सके. लेकिन जानते हैं इस सत्संग के लिए प्रशासन ने क्या इंतजाम किया था. सिर्फ दो एंबुलेंस मौके पर भेजे थे. भगदड़ मची तो प्रशासन में भी अंदरुनी तौर पर इलाज और राहत के लिए भगदड़ जैसी हालत पैदा हो गई. आस-पास के जिलों से एंबुलेंस बुलाए गए.
हाथरस से 11, मथुरा से 10, अलीगढ़ से 5, फ़र्रुख़ाबाद से 1 और आस-पास के हाई-वे पेट्रोल से 5 एंबुलेंस बुलाई गई. लेकिन जब तक ये सबकुछ हुआ, काफी देर हो चुकी थी. लोग इतनी बड़ी तादाद में हादसे का शिकार हुए भी अस्पताल छोटे पड़ने लगे. इन हादसे वाली जगह के सबसे करीब सिकंदराराऊ में एक कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर है, जहां 8 डॉक्टरों की जरूरत है, लेकिन हैं सिर्फ 2. इनमें भी हादसे के वक्त सिर्फ एक ही डॉक्टर था. ये जगह मौके से करीब 8 किलोमीटर दूर. ऐसे में घायलों को इलाज के लिए दूर दराज के इलाकों में भेजना पड़ा. जो कि काफी दूर हैं.
ज़ख़्मी लोगों को अलीगढ़, ऐटा, कासगंज और हाथरस के जिला अस्पताल ले जाया गया, जिनकी दूरी 40 से 48 किलोमीटर के बीच है. ऐसे में कई लोगों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया. वैसे भी जिन अस्पताल में घायलों को इलाज के लिए लाया गया, वहां भी इंतज़ाम पहले से ही नाकाफी थे. हाथ जिला अस्पताल में 70 बेड हैं और यहां 25 डॉक्टरों की जरूरत है, जबकि हैं सिर्फ 12. कासगंज के अस्पताल में 100 बेड हैं यहां 94 डॉक्टरों की जगह है, जबकि हैं सिर्फ 29. ऐटा में 420 बेड का मेडिकल कॉलेज अस्पताल है. यहां करीब 70 से 80 डॉक्टरों की जरूरत है, लेकिन सिर्फ 45.
इस हिसाब से देखा जाए तो पूरे जिले में डॉक्टर का कुल पद 102 है. जबकि जिले में सिर्फ 45 डॉक्टर ही पोस्टेड हैं. अब अगर हादसे की बात करें तो हादसे में 123 लोग मारे गए, जबकि 150 से ज्यादा जख्मी हैं.. ऐसे में अगर जिले के सभी डॉक्टर एक साथ भी काम पर लग जाते, तो भी हर डॉक्टर को कम से कम छह मरीजों का ख्याल रखना पड़ता. जो कि नामुमकिन ही नहीं असंभव जैसा है. मारे गए लोगों की पोस्टमार्टम से साफ हुआ है कि हादसे में जिन 123 लोगों की जान गई, उमें से 74 लोगों की मौत तो दम घुटने की वजह से ही हो गई. आम तौर पर ऐसे मरीजों को तुरंत ऑक्सीजन की जरूरत होती है.
लेकिन इतनी ऑक्सीजन का इंतजाम नहीं था. मारी गई महिलाओं में 31 महिलाएं ऐसी थीं, भगदड़ में जिनकी पसलियां टूट कर जिस्म के अंदरुनी अंगों मसलन दिल-फेफड़े वगैरह में घुस गई. 15 मौतों की वजह सिर और गर्दन की हड्डियां टूटने की वजह से हो गई. जाहिर है इतने गंभीर मरीजों को इलाज के लिए तुरंत आईसीयू की जरूरत होती है, लेकिन जहां अस्पताल और डॉक्टर ही नाकाफी हैं, वहां आईसीयू वाले इलाज की बात कौन करे? हादसे में मरने वालों में 113 महिलाए हैं, 7 बच्चे जबकि तीन पुरुष. ज्यादातर महिलाएं 40 से 50 साल के बीच की थीं, जो एक बार भगदड़ में नीचे गिरने के बाद फिर उठ नहीं पाईं.