प्रियंका गांधी की वायनाड से जीत पक्की मानी जा रही है, क्योंकि राजनीतिक समीकरण वहां कांग्रेस के पक्ष में हैं. अब सवाल सिर्फ यही बचता है कि हार-जीत का मार्जिन क्या होगा?
वायनाड में प्रियंका गांधी का चुनावी प्रदर्शन देखना अभी बाकी है. देखना ये है कि अगर वो जीत जाती हैं तो अंतर कितना होता है? राहुल गांधी जितना ही या उनसे कम? या उससे ज्यादा?
राहुल गांधी 3,64,422 वोटों के अंतर से जीते थे. हालांकि, ये अंतर 2019 के मुकाबले काफी कम था.
प्रियंका गांधी को दक्षिण भारत में अभी कई बाधाएं पार करनी हैं. वायनाड तो पहली बाधा है - और अगली बाधा पार करने के लिए पूरे दो साल का वक्त है. केरल में 2026 में विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं.
पहली लड़ाई वायनाड की है
2019 के आम चुनाव के बाद से ऐसा लग रहा था कि राहुल गांधी अपनी राजनीति पूरी तरह दक्षिण भारत पर फोकस करेंगे. 2021 के केरल विधानसभा चुनाव के दौरान लोगों की राजनीतिक समझदारी पर उनका बयान भी ऐसे ही इशारे कर रहा था.
और लग रहा था कि उत्तर भारत का मोर्चा प्रियंका गांधी ही संभालेंगी, लेकिन रायबरेली और अमेठी के नतीजों ने सारे समीकरण ही बदल डाले. पूरी तरह अदला-बदली करा दी - अब राहुल गांधी उत्तर भारत लौट आये हैं - और प्रियंका गांधी दक्षिण के मोर्चे पर तैनात कर दी गई हैं.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे जब राहुल गांधी के रायबरेली अपने पास रखने के फैसले के बारे में बता रहे थे, प्रियंका गांधी की अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस को सफलता दिलाने के लिए तारीफ भी की.
मल्लिकार्जुन खरगे ने 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में प्रियंका गांधी के स्लोगन 'लड़की हूं... लड़ सकती हूं' का भी खासतौर पर जिक्र किया था. प्रियंका गांधी के इस नारे के जिक्र में एक खास इशारा भी था - और वो इशारा महज वायनाड के लिए तो नहीं ही लगता.
क्योंकि वायनाड में तो कांग्रेस के हिसाब से लड़ाई करीब करीब एकतरफा ही है. लगातार दो लोकसभा चुनाव के नतीजे भी सबूत हैं - अगर ये बात है तो मल्लिकार्जुन खरगे का इशारा क्या था?
तो क्या मल्लिकार्जुन खरगे अपनी तरफ से कांग्रेस के केरल एक्शन प्लान की तरफ इशारा कर रहे थे? अगर वास्तव में ऐसा ही है तो मान कर चलना चाहिये कि कांग्रेस केरल में भी अगले चुनाव में प्रियंका गांधी के सहारे यूपी जैसा ही प्रयोग करने जा रही है.
केरल में कांग्रेस के पास मौका भी है. केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के 10 साल के शासन के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर भी हो सकती है, जिसका कांग्रेस फायदा उठाना चाहेगी - लेकिन कांग्रेस को ये भी नहीं भूलना चाहिये कि बीजेपी का वोट शेयर भी केरल में बढ़ने लगा है.
वैसे पहली लड़ाई तो वायनाड की ही है, केरल की बारी तो उसके बाद ही आएगी.
तैयारी के लिए 2 साल काफी है
केरल कांग्रेस का इस बार भी बेहतरीन प्रदर्शन रहा है. करीब करीब 2019 के बराबर ही. 2019 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ गठबंधन ने राज्य में लोकसभा की 20 में से 19 सीटें जीत ली थी, लेकिन इस बीजेपी का भी खाता खुल जाने से एक सीट कम हो गई, 18 सीट. जिसमें से कांग्रेस को वायनाड सहित 14 सीटें मिली हैं.
कांग्रेस के लिए फिक्रवाली बात बस ये है कि वोट शेयर थोड़ा कम हुआ है, लेकिन इसमें बीजेपी का उभार भी शामिल है - लेकिन बीजेपी का उभार अभी इतना नहीं लग रहा है कि वो महज दो साल में कांग्रेस को पछाड़ देगी.
2021 के केरल विधानसभा चुनाव से पहले मेट्रोमैन ई. श्रीधरन बड़े बड़े दावे कर रहे थे, लेकिन ऐन चुनाव के दौरान ही लगा जैसे वो कहीं गायब हो गये. शायद इसलिए भी क्योंकि राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए दिल्ली ने हाथ पीछे खींच लिये - और श्रीधरन का चुनाव बाद कहीं अता पता न रहा.
केरल में 2026 में विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं. यानी कुल दो साल बचे हैं. विधानसभा चुनाव की तैयारी के लिए इतना वक्त काफी होता है - और तैयारी तो प्रियंका गांधी के वायनाड के कैंपेन से ही शुरू हो जाएगी.
परंपरा के अनुसार 2021 में ही माना जा रहा था कि केरल में सत्ता बदल जाएगी, लेकिन पिनराई विजयन ने सत्ता में वापसी कर ली. विधानसभा चुनाव में तो वो चल जा रहे हैं, लेकिन लोकसभा चुनाव में उनका हाल भी वैसा ही हो रहा है, जैसा दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का.
लेकिन केरल में दिल्ली से अलग परिस्थितियां हैं. केरल में बीजेपी वाली स्थिति में कांग्रेस नजर आ रही है. और सियासी हालात को थोड़ा अलग से देखें तो मौका 2022 के पंजाब से मिलता जुलता लगता है.
तब सत्ता में होने के बावजूद कांग्रेस ने मौका गंवा दिया था. बीजेपी ऐसी स्थिति में नहीं खड़ी हो पाई थी कि सत्ता पर काबिज हो सके. जैसे इस बार ओडिशा में बीजेपी ने किया है. वहां कांग्रेस देखती रह गई, और बीजेपी ने बीजेडी नेता नवीन पटनायक को सत्ता से बेदखल कर अपनी सरकार बना ली है.
केरल में कांग्रेस वैसे ही मौके का फायदा उठा सकती है जैसे 2022 में आम आदमी पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिल गया था. उस वक्त कांग्रेस के हाथ से सत्ता फिसल जाने में कांग्रेस के भाई-बहन यानी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के फैसलों को जिम्मेदार माना गया था. बल्कि प्रियंका गांधी ही ज्यादा सक्रिय भूमिका निभा रही थीं - और ये सवाल भी उठने लगे थे कि जब कांग्रेस के पास कोई स्थाई अध्यक्ष नहीं है तो फैसले कौन ले रहा है.
केरल में प्रियंका गांधी के पास गलतियों से सीखने का भी मौका है, और यूपी चुनाव के अनुभवों का फायदा उठाने का भी - और सबसे बड़ा मौका है कांग्रेस की दक्षिण साधना को तेलंगाना और कर्नाटक से आगे तक ले जाने का.