मायावती ने चंद्रशेखर को दलित नेता का तमगा न देते हुए किनारा कर लिया. चंद्रशेखर ने समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव से भी लोकसभा चुनाव में सीट की पेशकश की, लेकिन उन्होंने भी दरकिनार कर दिया. अपनी पार्टी के बूते चुनाव में उतरे चंद्रशेखर ने मजबूत जीत हासिल की. चंद्रशेखर की जीत को दलित सियासत के लिए बड़ा बदलाव माना जा रहा है. इसी के साथ इमरान मसूद की जीत में भी चंद्रशेखर का बड़ा रोल माना जा रहा है.
चंद्रशेखर की बढ़ती लोकप्रियता के मद्देनजर बसपा सुप्रीमो मायावती ने नगीना पर फोकस किया. उन्होंने अपने भतीजे आकाश आनंद को स्टार प्रचार के रूप में नगीना भेजा। आकाश ने अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत नगीना से ही की थी. मायावती ने खुद भी बिजनौर जिले में सभाएं कर चंद्रशेखर का नाम लिए बगैर तमाम निशाने साधे, लेकिन सब चूक गए और चंद्रशेखर के मुकुट में नगीना सज गया.
दरअसल, चंद्रशेखर ने किसी भी पार्टी से गठबंधन करने से इनकार कर दिया. उनका कहना है कि गठबंधन जनता से है और इसी के सहारे यूपी में उपचुनाव लड़ेंगे. जनता ने इन सभी पार्टियों को देख लिया और भरोसा उठ चुका है. उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी इस चुनाव में नए लोगों की मौका देगी. चंद्रशेखर लगातार दलित, मुस्लिम, आदिवासियों का आवाज उठा रहे हैं.
नाम ही उपचुनाव है, लेकिन मुकाबला जोरदार है
नगीना लोकसभा सीट से चुनाव जीतने के फौरन बाद ही चंद्रशेखर आजाद ने यूपी की 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले चुनावों में उतरने की घोषणा कर दी थी. अब तो चार विधानसभा सीटों के लिए चुनाव प्रभारी भी नियुक्त किये जा चुके हैं.
उत्तर प्रदेश में करहल, मिल्कीपुर, कटेहरी, कुंदरकी, गाजियाबाद, खैर, मीरापुर, फूलपुर, मझवा और सीसामऊ विधानसभा सीट पर उपचुनाव होना है. इनमें से चार सीटों खैर (अलीगढ़), मीरापुर (मुजफ्फरनगर), कुंदरकी (मुरादाबाद) और गाजियाबाद सदर (गाजियाबाद) पर आजाद समाज पार्टी के चुनाव प्रभारियों की नियुक्ति हो गई है.
खास बात ये है कि चंद्रशेखर आजाद ने अपने प्रतिद्वंद्वी बीएसपी नेता मायावती की ही तरह उपचुनावों में किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबधन नहीं करने का फैसला किया है. अव्वल तो दोनो दलों की तैयारी सभी सीटों पर कड़े मुकाबले की होगी, लेकिन मिल्कीपुर जैसी सीट भी है जहां दिलचस्प लड़ाई देखने को मिल सकती है.
लोकसभा चुनाव से पहले मिल्कीपुर की पहचान इतनी ही थी कि वहां के विधायक यूपी विधानसभा में अखिलेश यादव की बगल में बैठते थे - और अब वही अवधेश प्रसाद सांसद बन जाने के बाद लोकसभा में भी अखिलेश यादव और राहुल गांधी के बीच में बैठने लगे हैं.
जाहिर है मायावती की भी कोशिश होगी, मिल्कीपुर सीट समाजवादी पार्टी से छीन लेने की, और चंद्रशेखर आजाद भी ऐसी ही रणनीति पर काम कर रहे होंगे कि कैसे अखिलेश यादव के पाले से मिल्कीपुर को झपट्टा मार कर झटक लें.
ऐसे ही मुकाबले उन सीटों पर भी देखने को मिल सकते हैं जहां मुस्लिम आबादी का दबदबा है, लेकिन मायावती बीएसपी के चुनाव प्रदर्शन के बाद पहले ही कह चुकी हैं कि आगे से मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने के बारे में नये सिरे से विचार किया जाएगा - लेकिन चंद्रशेखर आजाद बहुजन के बराबर ही मुस्लिमों के लिए भी आवाज उठा रहे हैं.
उभरते आजाद, और बीएसपी का घटता वोट बैंक
जिस तेजी से चंद्रशेखर आजाद का यूपी में राजनीतिक उभार हुआ है, करीब करीब उसी स्पीड से मायावती का वोट बैंक भी उनसे दूर छिटकता जा रहा है. ताजा उदाहरण तो नगीना लोकसभा सीट ही है. आजाद समाज पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चंद्रशेखर आजाद को नगीना में जहां 51.19 फीसदी वोट मिले, जबकि बीएसपी के सुरेंद्र पाल के खाते में महज 1.33 फीसदी ही वोट पड़े थे.
बीएसपी को जोरदार चुनौती इसलिए भी मिल रही है क्योंकि मायावती के कोर जाटव वोटर के बीच उनका जनाधार कम होता जा रहा है. हाल के लोकसभा चुनाव में तो मायवती का वोटर भी बीजेपी की तरफ से मुंह मोड़कर अखिलेश यादव के पीडीए फॉर्मूले के साथ चला गया - और मायावती फिर से जीरो बैंलस पर आ गईं.
मायावती ने बीते चुनावों में इधर उधर खूब हाथ पैर मारे, और ये तोहमत भी झेली कि बीएसपी तो बीजेपी की मददगार बन गई है. लोगों के मन में ये धारणा बनने देने से मायावती ने रोकने की कोशिश भी नहीं की, और बहुत सारी सीटों पर ऐसे उम्मीदवार उतारे जिसकी वजह से सीधे सीधे बीजेपी को मदद भी मिली. सबसे बड़ी मिसाल तो 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव के बाद आजमगढ़ उपचुनाव है. 2019 के चुनाव में अखिलेश यादव से शिकस्त पाने वाले दिनेशलाल यादव निरहुआ ने उपचुनाव में सपा उम्मीदवार धर्मेंद्र यादव को तो हरा दिया था, लेकिन 2024 में गुड्डू जमाली के मैदान में न होने से मैदान छोड़कर ही भागना पड़ा.
यूपी में दलित वोटर की कुल हिस्सेदारी 21.1 फीसदी है, जिसमें जाटव दलित 11.7 फीसदी हैं - चूंकि चंद्रशेखर आजाद और मायावती दोनों ही जाटव समुदाय से ही आते हैं, लिहाजा दोनों का आपस में ही बंटवारा होने लगा है.
पहले आलम ये था कि मायावती को पूरे दलित समाज का सपोर्ट था, लेकिन गुजरते वक्त के साथ सिर्फ उनकी अपनी बिरादरी जाटव के ही लोग साथ रह गये. अभी तो चंद्रशेखर आजाद जाटव वोटर के भरोसे ही आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन कोशिश तो जल्द से जल्द पूरे दलित समाज का सपोर्ट हासिल करने की है.
ये चंद्रशेखर का दबदबा ही है जो मायावती ने भतीजे आकाश आनंद को फटाफट मैच्योर मानते हुए फिर से काम पर लगा दिया है, लेकिन तमाम संसाधनों के बावजूद चंद्रशेखर से मुकाबला मुश्किल होता जा रहा है - क्योंकि चंद्रशेखर उन मुद्दों पर ही लोगों की उम्मीद बन रहे हैं, जिन पर मायावती अरसे से निराश करती आ रही है.