जब इंसान जन्म लेता है तो उसके पास सांसें तो होती हैं, लेकिन कोई नाम नहीं होता और जब इंसान की मृत्यु होती है तो उसके पास नाम तो होता है, लेकिन सांसें नहीं होतीं. इन्हीं सांसों और नाम के बीच की यात्रा को जीवन कहते हैं. रतन टाटा ने भी इस यात्रा को पूरा करके इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है. रतन टाटा ने एक बार कहा था कि इंसान सिर्फ एक मोबाइल के रिचार्ज जैसा होता है, जो अपनी वैलिडिटी के बाद खत्म हो जाता है, लेकिन आज अगर रतन टाटा हमें ऊपर से देख रहे होंगे, तो हम और ये पूरा देश उनसे कहना चाहता है कि उनकी वैलिडिटी कभी खत्म नहीं होगी और वो इस देश के करोड़ों लोगों के दिलों में हमेशा जीवित रहेंगे और उनकी यादें हमेशा अमिट रहेंगी. गुरुवार को जब मुंबई में नरीमन पॉइंट के नेशनल सेंटर में रतन टाटा के पार्थिव शरीर को लाया गया, तो उनका पार्थिव शरीर भारत के तिरंगे में लिपटा हुआ था, उन्हें राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई. लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता, उद्योगपति, सेलिब्रिटी और आम लोगों ने रतन टाटा को नमन करके अंतिम विदाई दी.
वर्ली स्थित श्मशान में उनका अंतिम संस्कार किया गया. रतन टाटा का PET DOG भी अंतिम दर्शन के दौरान लगातार उनके पार्थिव शरीर के साथ बैठा रहा. ये बेज़ुबान बोल नहीं सकता, लेकिन इसे रतन टाटा की मौत का इतना दुख हुआ है कि ये उनके पार्थिव शरीर के पास से हिला तक नहीं. इससे समझा जा सकता है कि रतन टाटा का रिश्ता इन बेज़ुबानों के साथ भी अटूट था.
जिस गाड़ी में रतन टाटा के पार्थिव शरीर को श्मशान घाट ले जाया गया, उस गाड़ी के आगे एक 31 साल का युवा अपनी बाइक पर चल रहा था और ये युवा कोई और नहीं, बल्कि रतन टाटा के पर्सनल असिस्टेंट शांतनु नायडू थे. 86 वर्ष के रतन टाटा ने कभी शादी नहीं की, लेकिन शांतनु नायडू के साथ उनका काफी गहरा रिश्ता था.
पारसी धर्म में ये है अंतिम संस्कार की प्रक्रिया
रतन टाटा पारसी धर्म से थे और पारसी धर्म में अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को दखमा या टावर ऑफ साइलेंस कहा जाता है, पारसी धर्म में मृत्यु के बाद शव को आसमान के हवाले कर दिया जाता है. जिसके लिए टावर ऑफ साइलेंस में पार्थिव शरीर को ऐसी जगह पर रखा जाता है, जहां ऊपर आकाश होता है और गिद्ध होते हैं, ये गिद्ध जब उस पार्थिव शरीर के मांस को खा लेते हैं, तब किसी व्यक्ति का अंतिम संस्कार पूर्ण माना जाता है.
पारसी धर्म की परंपरा से क्यों नहीं हुआ अंतिम संस्कार?
साल 2018 में मुम्बई में पारसी धर्म के कुल 720 लोगों की मृत्यु हुई थी, जिनमें 647 लोगों का अंतिम संस्कार इसी दखमा प्रक्रिया के तहत हुआ था, लेकिन रतन टाटा का अंतिम संस्कार अग्निदाह से हुआ है, जैसे हिन्दू धर्म में होता है. सबसे पहले रतन टाटा का पार्थिव शरीर प्रार्थना कक्षा में रखा गया और इसके बाद पारसी धर्म के अनुसार उनके पार्थिव शरीर पर ''गेह-सारनू'' पढ़ा गया और बाद में अंतिम संस्कार की दूसरी प्रक्रियाओं में भी पारसी धर्म का पालन हुआ, लेकिन आखिरी में जो दखमा होता है, उसकी जगह इलेक्ट्रॉनिक तरीके से उनके पार्थिव शरीर का अग्निदाह से अंतिम संस्कार हुआ, इसलिए लोग ये भी पूछ रहे हैं कि रतन टाटा का अंतिम संस्कार पारसी धर्म की दखमा परम्परा से क्यों नहीं हुआ? तो इसका कारण ये है कि जब से गिद्धों की संख्या घटी है, तब से पारसी धर्म में तीन तरह से अंतिम संस्कार किया जाने लगा है.
पहला- पारसी धर्म में अंतिम संस्कार को दखमा कहते हैं, जिसमें गिद्ध पार्थिव शरीर का मांस खाकर उसकी अंत्योष्टि करते हैं.
दूसरा- पारसी धर्म में भी शवों को दफनाया जाता है और टाटा ग्रुप के पूर्व चेयरमैन JRD टाटा का अंतिम संस्कार भी इसी तरह से हुआ था और उनके शव को फ्रांस में उनके माता-पिता और भाई की कब्र के साथ दफनाया गया था.
तीसरा- दाह संस्कार का और रतन टाटा का अंतिम संस्कार इसी तरह से हुआ है और उनसे पहले राहुल गांधी के दादा और इंदिरा गांधी के पति फिरोज़ गांधी का अंतिम संस्कार भी अग्निदाह से हुआ था. फिरोज गांधी पारसी धर्म से थे, लेकिन उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में हिंदुओं के एक श्मशान घाट में दाह संस्कार के जरिए हुआ था और बाद में उनकी अस्थियों के एक हिस्से को प्रयागराज के संगम में प्रवाहित किया गया था, जबकि दूसरे हिस्से को प्रयागराज के एक पारसी कब्रिस्तान में दफनाया गया था और अस्थि के तीसरे हिस्से को सूरत में उनकी पुश्तैनी कब्रगाह में दफनाया गया था.
JRD टाटा के बाद बने थे उत्तराधिकारी
टाटा ग्रुप के संस्थापक जमशेदजी टाटा थे, जिनकी दो संतानें थीं. पहले बेटे का नाम था, दोराबजी टाटा और दूसरे बेटे का नाम था, रतनजी टाटा. रतनजी टाटा का निधन बहुत कम उम्र में हो गया था, जिसके बाद उनकी पत्नी ने बॉम्बे (अब मुंबई) के एक पारसी अनाथालय से एक बच्चे को गोद लिया था, जिनका नाम उन्होंने नवल टाटा रखा था और नवल टाटा ने 2 शादियां की थीं, जिनमें पहली पत्नी से उन्हें दो बेटे हुए थे, जिनमें बड़े बेटे का नाम रतन नवल टाटा था और ये वही रतन नवल टाटा थे, जिन्होंने आज हम सबको अलविदा कह दिया है. रतन टाटा के पिता नवल टाटा को जमशेतजी टाटा के बेटे रतनजी टाटा की पत्नी ने एक पारसी अनाथालय से गोद लिया था और इसके बाद रतन टाटा अपनी प्रतिभा के कारण टाटा ग्रुप में JRD टाटा के बाद उनके उत्तराधिकारी बने थे. साल 1991 से 2012 के बीच 21 साल तक उन्होंने टाटा ग्रुप का अध्यक्ष रहते हुए काम किया था और बाद में वो मानद अध्यक्ष बन गए थे.
रॉल्स रॉयस कार की बजाय पैदल जाना था पसंद
रतन टाटा प्रतिभाशाली होने के साथ काफी विनम्र थे. ईमानदार थे, अनुशासित थे और उनकी सबसे बड़ी पूंजी उनकी सादगी थी. रतन टाटा कहते थे कि पैसे को दिमाग में नहीं, बल्कि जेब में रखना चाहिए और जीवन को सादगी के साथ जीना चाहिए. क्योंकि सादगी से बड़ी कोई पूंजी नहीं होती. रतन टाटा जब सिर्फ 10 साल के थे, तब उनके माता-पिता तलाक के बाद अलग हो गए थे और इसके बाद रतन टाटा की पूरी परवरिश उनकी दादी नवाज़बाई टाटा ने की थी. रतन टाटा ने एक बार खुद बताया था कि उस जमाने में उनकी दादी के पास एक रॉल्स रॉयस कार हुआ करती थी और ये कार उन्हें हर रोज़ स्कूल से घर ले जाने के लिए जरूर आती थी, लेकिन उस समय रतन टाटा कोई ना कोई बहाना बनाकर इस कार से घर जाने के बजाय बाकी बच्चों की तरह पैदल ही अपने घर जाना पसंद करते थे और उन्हें इस कार में बैठने में शर्म आती थी, क्योंकि उन्हें सादगी पसंद थी और बाद में यही सादगी उनकी पहचान बन गई.
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था से ज्यादा कम्पनियों की नेटवर्थ
वर्ष 2021 में रतन टाटा पिछले दो वर्षों से बीमार चल रहे अपने एक पुराने कर्मचारी को देखने के लिए मुम्बई से पुणे गए थे और उनसे कहा था कि, वो घबराएं नहीं और उनके साथ टाटा ग्रुप का पूरा परिवार खड़ा है. इसके अलावा एक कार्यक्रम में अपने कर्मचारियों के साथ ग्रुप फोटो खिंचवाने के लिए रतन टाटा इस तरह से घुटनों पर बैठ गए थे. रतन टाटा की सादगी और उनकी विनम्रता सबको हैरान कर देती थी और लोग कई बार उन्हें देखकर ये भी पूछ लेते थे कि क्या ये वाकई में वही रतन टाटा हैं, जिनकी कम्पनियों की कुल नेटवर्थ पाकिस्तान जैसे देश की कुल अर्थव्यवस्था से भी ज्यादा है.
आम लोगों के उद्योगपति थे रतन
कहते हैं कि सबसे बड़ा दानी कंजूस व्यक्ति होता है, क्योंकि वो अपनी सारी दौलत दूसरों के लिए छोड़कर चला जाता है, लेकिन रतन टाटा इस मामले में भी एक अपवाद थे. रतन टाटा सिर्फ उद्योगपति नहीं थे, बल्कि वो आम लोगों के उद्योगपति थे, जो बिज़नेस के साथ समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को भी समझते थे. टाटा ग्रुप में 66 फीसदी हिस्सेदारी टाटा ट्रस्ट की है, जिसका मतलब ये है कि टाटा ग्रुप के कुल मुनाफे का 66 पर्सेंट हिस्सा आज भी टाटा ट्रस्ट को दान में जाता है और इस दान से देश के आम लोगों की मदद की जाती है.
दुनिया के बड़े दानदाताओं में टाटा ग्रुप पहले नंबर पर
आज भारत दुनिया के सबसे अमीरों की लिस्ट में भले ही 11वें स्थान पर हो, लेकिन हुरुन रिसर्च के मुताबिक दुनिया के सबसे बड़े दानदाताओं में टाटा ग्रुप पहले स्थान पर है. जमशेदजी टाटा ने 7 लाख 60 हज़ार रुपये का दान दिया था, जबकि रतन टाटा ने भी समाज के प्रति अपनी इस जिम्मेदारी को जारी रखा और कोविड के समय उन्होंने पीएम केयर्स फंड में डेढ़ हज़ार करोड़ रुपये का दान दिया था. रतन टाटा मानते थे कि पैसा सिर्फ कमाने के लिए नहीं होता, बल्कि पैसा दूसरों की भलाई के लिए भी होता है और यही कारण है कि जब टाटा ग्रुप की कुल नेटवर्थ 34 लाख करोड़ थी, तब भी रतन टाटा भारत के सबसे अमीर लोगों की सूची में बहुत पीछे 421वें स्थान पर थे और इसका कारण ये है कि उन्होंने जो भी कमाया, उसके एक बड़े हिस्से को समाज की भलाई पर खर्च कर दिया. सबसे बड़ी बात ये है कि रतन टाटा लोगों से ऐसे जुड़कर रहते थे, जैसे कोई पेड़ अपनी जड़ों से जुड़कर रहता है.
इन 4 चीज़ों पर कभी शर्मिंदा न हों
रतन टाटा ने एक बार कहा था कि जीवन में इन चार चीज़ों पर कभी शर्मिंदा नहीं होना चाहिए.
पहला- पुराने कपड़े, क्योंकि कपड़ों से कभी ये परिभाषित नहीं होता कि आप कितने प्रतिभाशाली हैं
दूसरा- गरीब दोस्त, क्योंकि दोस्ती में कोई स्टेटस नहीं होता.
तीसरा- बूढ़े माता-पिता, क्योंकि आज आप जो भी हैं, उन्हीं बूढ़े माता-पिता के कारण हैं
चौथा- सादगी, इंसान को सादगी पर कभी शर्मिंदा नहीं होना चाहिए, क्योंकि सफलता को दिखावे से नहीं आंका जा सकता.
अमेरिका से पढ़ाई, टाटा इंडस्ट्रीज़ में नौकरी फिर संभाली ग्रुप की बागडोर
रतन टाटा ने अमेरिका की Cornell University से आर्किटेक्चर की पढ़ाई की थी और वर्ष 1962 में उन्होंने टाटा इंडस्ट्रीज़ में अपनी नौकरी शुरू की थी और वो टाटा स्टील में शॉप फ्लोर का काम करते थे. उनकी खास बात ये थी कि वो जमशेदजी टाटा के परपोते होते हुए भी बाकी कर्मचारियों के साथ फैक्ट्री के हॉस्टल में रहते थे और उन्हीं के साथ एक आम कर्मचारी बनकर काम करते थे. रतन टाटा इतने प्रतिभाशाली थे कि वर्ष 1932 से 1991 तक टाटा ग्रुप का नेतृत्व करने वाले J.R.D टाटा ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया और इसके बाद रतन टाटा ने टाटा ग्रुप का और विस्तार किया और टाटा ग्रुप के हर प्रोडक्ट में देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भावना थी. उदाहरण के लिए टाटा सॉल्ट की टैगलाइन थी, देश का नमक. टाटा की गाड़ियों की स्लोगन था, इसमें देश का लोहा है और जब टाटा TEA लॉन्च हुई, तब भी इसके कैम्पेन की टैगलाइन थी, ''जागो रे''. जिसमें देश के वोटर्स को नींद से जगाने की कोशिश की गई और इस तरह टाटा ग्रुप की सेवाएं और उसके तमाम प्रोडक्ट्स देशभक्ति और राष्ट्रवाद का पर्याय बन गए.
टाटा ग्रुप भारत के हर घर का हिस्सा
आज टाटा ग्रुप भारत के हर घर का हिस्सा है. घड़ी बनाने वाली TITAN कंपनी टाटा की है, जिस सॉफ्टवेयर की मदद से आपका पासपोर्ट बनता है, वो भी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज का है. देश में जिन बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण होता है, उनमें भी टाटा स्टील का ही स्टील इस्तेमाल होता है और आपको जानकर हैरानी होगी कि अंग्रेजों में जमाने में बने कलकत्ता के हावड़ा ब्रिज में भी टाटा का ही स्टील लगा है. इसके अलावा बिग बास्केट, कपड़ों का मशहूर ब्रांड वेस्टसाइड, ज्वैलरी ब्रांड तनिष्क, एअर इंडिया एयरलाइन, विस्तारा एयरलाइन, ताज होटल्स, टाटा की गाड़ियां- रेंज रोवर, जगुआर. इसके अलावा STARBUCKS, जारा, फास्ट्रैक, क्रोमा, फिटनेस ब्रांड, कल्टफिट, हिमालयन कम्पनी, ई-कॉमर्स कम्पनी, TATA CLIQ, VIVANTA HOTELS, जिंजर रेस्टोरेंट्स की चेन... और ऑनलाइन दवाइयां उपलब्ध कराने वाला ऐप TATA 1MG भी टाटा ग्रुप का ही है, ये लिस्ट यहीं खत्म नहीं होती. रतन टाटा और टाटा ग्रुप के प्रोडक्ट्स भारत के घर घर का हिस्सा बन चुके हैं.
देश को कई शिक्षण संस्थान दिए
टाटा ग्रुप ने देश को ऐसे शिक्षण संस्थान भी दिए, जो आज भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के भी शीर्ष संस्थानों की सूची में आते हैं. इनमें बेंग्लुरु का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस है, मुम्बई का टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च है. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस है और नेशनल सेंटर फॉर द परफॉर्मिंग आर्ट्स है. कोलकाता और मुम्बई में ही टाटा ट्रस्ट का सबसे बड़ा कैंसर हॉस्पिटल है, जहां कैंसर के 70 प्रतिशत मरीजों का मुफ्त इलाज होता है.